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Spiritual Awakening: Healing or Pain ?

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Spiritual awakening एक ऐसा अनुभव है जिसे शब्दों में बाँधना उतना ही कठिन है जितना कि किसी गहरे घाव की जलन को सिर्फ देखकर समझ लेना। यह यात्रा बाहर शांति की तरह दिखाई देती है, लेकिन भीतर इसका पहला कदम हमेशा तूफान लेकर आता है। यह कोई अचानक से प्राप्त होने वाली दिव्यता नहीं, बल्कि धीरे-धीरे टूटती पहचान, बिखरते रिश्ते, और भीतर से उभरती बेचैनी का सम्मिलित रूप है। जागरण की शुरुआत अक्सर उस पल से होती है जब इंसान महसूस करता है कि उसकी ज़िंदगी जैसे एक पुराने ढाँचे में फँसी हुई है—जहाँ वह जी तो रहा है, पर भीतर का सत्य बार-बार उस ढाँचे को तोड़ने की कोशिश कर रहा है। यही वह क्षण होता है जब पुराने beliefs काँपने लगते हैं: जो चीज़ें सालों से सही लगती थीं, अचानक hollow महसूस होने लगती हैं; जिन लोगों से भावनात्मक जुड़ाव था, वही दूर लगने लगते हैं; और जिन लक्ष्यों के पीछे भागते हुए हम थक चुके थे, वे भी अचानक बेअसर लगने लगते हैं। Spiritual awakening का सबसे बड़ा झटका यही होता है—यह आपकी दुनिया को बाहर से नहीं, भीतर से पुनर्निर्मित करता है। Awakening की पीड़ा इसलिए तीखी होती है क्योंकि यह सबसे पहले ego को चो...

चेतना: भीतर जलती हुई वह रोशनी जिसे हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं

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हम रोज़ जिस दुनिया में घूमते हैं, वह बाहर से जितनी तेज़, चमकदार और शोरगुल वाली लगती है, भीतर से उतनी ही धुंधली और अनजानी रहती है। हम दूसरों के चेहरों को पहचान लेते हैं, आवाज़ें सुन लेते हैं, माहौल समझ लेते हैं—लेकिन अपने भीतर की आवाज़, अपने भीतर के अंधेरे और रोशनी को शायद ही कभी देखने की कोशिश करते हैं। इसी अंदरूनी दुनिया का असली नाम है चेतना । अजीब बात यह है कि चेतना कोई भारी-भरकम दार्शनिक शब्द नहीं है। यह कुछ ऐसा है जो हर इंसान में पल-पल धड़क रहा है। फिर भी, हम उसे तभी समझ पाते हैं जब जीवन हमें किसी मोड़ पर झकझोर कर खड़ा कर देता है—कभी किसी टूटन की वजह से, कभी किसी गहरी खुशी की वजह से, या कभी किसी ऐसी रात में जब नींद तो आती है पर मन नहीं मानता। चेतना उसी क्षण में दिखाई देती है, जब हम खुद से भागना छोड़ देते हैं। अक्सर लोग चेतना को किसी धार्मिक या आध्यात्मिक चश्मे से देखते हैं। लेकिन सच कहूँ तो, चेतना का धर्म से सीधा कोई लेना-देना नहीं है। यह किसी खास पोशाक, किसी मंत्र, किसी पुस्तक या किसी पहचान की गुलाम नहीं है। चेतना उस जागरूकता का नाम है जो हमें खुद को देखने की क्षमता देती है—साफ,...

ज़िंदगी की दौड़ में हम किससे भाग रहे हैं? – एक सच्ची, कच्ची और बिना बनावट की बात

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कभी कभी लगता है कि पूरी दुनिया किसी अदृश्य रेस में भाग रही है। कोई नहीं जानता मंज़िल क्या है, पर सबको डर है कि अगर रुक गए, तो पीछे रह जाएंगे। और मज़ेदार बात यह है कि इस रेस में किसी ने हिस्सा लेना चाहा भी नहीं था। बचपन में हमने इससे बहुत आसान चीज़ों के सपने देखे थे—खेलना, कुछ सीखना, गलतियाँ करना, खुद को समझना। लेकिन जैसे-जैसे बड़े हुए, लगता है जैसे किसी ने हमारे हाथ में एक स्क्रिप्ट पकड़ा दी और बोला—“बस इसे फॉलो करो, यही लाइफ़ है।” असल में, हम सब भाग तो रहे हैं… पर मंज़िल की तरफ नहीं। हम उन चीज़ों से भाग रहे हैं जिन्हें महसूस करने में डर लगता है—अपनी कमज़ोरियों से, अपने डर से, अपने सच्चे सच से। बाहर से लगता है कि हम career, पैसे या stability के पीछे भाग रहे हैं, लेकिन भीतर की हकीकत कुछ और है। हम बस खुद को distract कर रहे हैं ताकि अपनी अधूरी बातों, अधूरे रिश्तों और अधूरी उम्मीदों का सामना न करना पड़े। लोग बोलते हैं कि ज़िंदगी complicated है। लेकिन सच्चाई ये है कि लाइफ़ उतनी complicated नहीं होती—हम खुद उसे उलझा देते हैं। क्योंकि हम चीज़ों को जैसा है वैसा देखने की आदत खो चुके हैं। आजकल...

जीवन का सार .......

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हम लगातार किसी “अर्थ” की तलाश में जीते हैं, जैसे जीवन अपने आप में पर्याप्त नहीं। हम मान लेते हैं कि कुछ बड़ा उद्देश्य होगा — कोई लक्ष्य, कोई दिव्यता, कोई मक़सद जो सबको जोड़ दे। पर जितना अधिक हम खोजते हैं, उतना ही जीवन फिसलता जाता है। सच तो यह है कि जीवन का कोई “सार” नहीं है जिसे बाहर कहीं पाया जा सके — वह तभी प्रकट होता है जब हम उस खोज को ही छोड़ देते हैं। मन को यह बात स्वीकार करना कठिन है क्योंकि मन को हमेशा दिशा चाहिए — कोई कारण, कोई गंतव्य, कोई कहानी। पर जीवन कहानी नहीं है, वह तो घटना है — हर सांस में घटता हुआ, हर पल में नष्ट होता हुआ। “सार” की भूख असल में “स्थायित्व” की भूख है जब हम कहते हैं कि हम जीवन का सार जानना चाहते हैं, तो हम दरअसल यह कह रहे होते हैं — “मुझे कुछ ऐसा चाहिए जो न बदले, जो स्थायी हो, जिस पर मैं टिक सकूँ।” हमारी सारी आध्यात्मिकता, सारे धर्म, सारे दर्शन इसी भय से जन्मे हैं — अस्थिरता के भय से। हम मृत्यु से डरते हैं, इसलिए अमरता की बातें करते हैं। हम शून्य से डरते हैं, इसलिए ईश्वर की कल्पना करते हैं। हम अर्थहीनता से डरते हैं, इसलिए अर्थ रचते हैं।...

अहंकार से मुक्ति: सच्चे जागरण की ओर साधना का मार्ग

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कबीर ने कहा था — “प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय संग।” यह एक साधारण पंक्ति नहीं बल्कि आत्मा पर चोट है। इसका अर्थ है कि जब तक “मैं” मौजूद है, तब तक प्रेम, सत्य या ईश्वर उस व्यक्ति तक नहीं पहुँच सकता। अहंकार वही दीवार है जो हमें बाकी सब से अलग करती है, और यही दीवार हमारे सभी दुखों की जड़ है। इंसान अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा इस “मैं” को सजाने-सँवारने में बिता देता है, पर कभी यह नहीं देखता कि यह “मैं” असल में है क्या। अहंकार बहुत चालाक होता है — वह कभी धन के रूप में आता है, कभी धर्म के रूप में, और कभी आध्यात्मिकता के वेश में। कबीर ने चेताया था कि जो अपने को ज्ञानी समझे, वही सबसे अज्ञानी है, क्योंकि अहंकार मरना नहीं जानता, वह बस रूप बदलता रहता है। ओशो कहते हैं कि अहंकार एक बहुत परिष्कृत बीमारी है, जैसे-जैसे तुम आध्यात्मिक बनते हो, वह और अधिक सूक्ष्म हो जाता है। वह यहां तक कहने लगता है, “मैं अब अहंकार रहित हूँ।” और यही सबसे गहरा भ्रम है, क्योंकि जिस क्षण तुम कहते हो “मैं अहंकार रहित हूँ,” उसी क्षण अहंकार ने नया रूप ले लिया होता है। रमण महर्षि के पास एक व्यक्ति गया और बोला, “मुझे बत...

हमें लोगों की Validation की भूख क्यों होती है?

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कभी गौर किया है, जब कोई हमारी तारीफ़ करता है तो भीतर एक मीठी सी लहर उठती है, लेकिन जैसे ही कोई आलोचना कर देता है, वही मन बेचैन हो उठता है। यह जो दूसरों की स्वीकृति की भूख है, जिसे हम validation कहते हैं, वह आधुनिक जीवन की सबसे गहरी जड़ बन चुकी है। लेकिन असल सवाल यह है कि हमें दूसरों की validation की ज़रूरत क्यों पड़ती है? क्या हम खुद को देखने, महसूस करने या स्वीकार करने में इतने अक्षम हो गए हैं कि अपनी कीमत तय करने के लिए हमें किसी और की नज़रों की ज़रूरत पड़ती है? Validation का मतलब होता है किसी और के approval से अपनी value तय करना। यह धीरे-धीरे हमारी पहचान का हिस्सा बन जाता है। हम भूल जाते हैं कि असली स्वीकृति भीतर से आनी चाहिए, बाहर से नहीं। मनुष्य की चेतना मूल रूप से स्वतंत्र है, लेकिन समाज ने हमें बचपन से ही यह सिखाया है कि “अच्छा वही है जो दूसरों को पसंद आए।” इसी conditioning ने हमें असली से बनावटी बना दिया है। हम हर पल किसी मंच पर अभिनय कर रहे हैं ताकि कोई हमें notice करे, approve करे, सराहे। लेकिन भीतर हम जानते हैं कि यह approval कभी स्थायी नहीं होता, यह बस कुछ पलों की राहत है,...

super consciousness :– जब मनुष्य स्वयं ब्रह्म बन जाता है

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मनुष्य का सबसे बड़ा रहस्य उसके बाहर नहीं, बल्कि उसके भीतर छिपा है। हम जीवन भर ब्रह्मांड को समझने की कोशिश करते हैं—आकाश, तारे, ग्रह, ऊर्जा, भगवान—पर बहुत कम लोग यह समझ पाते हैं कि यह सब कुछ जो बाहर दिख रहा है, उसकी जड़ हमारे अंदर ही है। जब मनुष्य उस अवस्था में पहुँचता है जहाँ उसका चेतन, अवचेतन और अतिचेतन एक हो जाते हैं, तब उसे जो अनुभव होता है उसे “ सुपर कॉन्शियसनेस ” कहा जाता है। यह कोई रहस्यमयी या कल्पनात्मक शब्द नहीं है, बल्कि वह स्थिति है जहाँ “व्यक्ति” समाप्त हो जाता है और केवल “चेतना” रह जाती है। चेतना के तीन स्तर:- मानव चेतना को तीन स्तरों में बाँटा जा सकता है — conscious , subconscious , और superconscious । पहला स्तर वह है जहाँ हम रोज़मर्रा के जीवन में जीते हैं — सोचते हैं, निर्णय लेते हैं, बोलते हैं, प्रतिक्रिया देते हैं। यही हमारा सचेत मन है। दूसरा स्तर है अवचेतन , जहाँ हमारे सारे संस्कार, भय, इच्छाएँ और यादें जमा रहती हैं। यही वह परत है जो हमारे व्यवहार को नियंत्रित करती है, चाहे हमें इसका पता न हो। तीसरा और अंतिम स्तर है सुपर कॉन्शियसनेस — यह वह स्थिति है जहाँ मन...