super consciousness :– जब मनुष्य स्वयं ब्रह्म बन जाता है
मनुष्य का सबसे बड़ा रहस्य उसके बाहर नहीं, बल्कि उसके भीतर छिपा है। हम जीवन भर ब्रह्मांड को समझने की कोशिश करते हैं—आकाश, तारे, ग्रह, ऊर्जा, भगवान—पर बहुत कम लोग यह समझ पाते हैं कि यह सब कुछ जो बाहर दिख रहा है, उसकी जड़ हमारे अंदर ही है। जब मनुष्य उस अवस्था में पहुँचता है जहाँ उसका चेतन, अवचेतन और अतिचेतन एक हो जाते हैं, तब उसे जो अनुभव होता है उसे “सुपर कॉन्शियसनेस” कहा जाता है। यह कोई रहस्यमयी या कल्पनात्मक शब्द नहीं है, बल्कि वह स्थिति है जहाँ “व्यक्ति” समाप्त हो जाता है और केवल “चेतना” रह जाती है।
चेतना के तीन स्तर:-
मानव चेतना को तीन स्तरों में बाँटा जा सकता है — conscious, subconscious, और superconscious। पहला स्तर वह है जहाँ हम रोज़मर्रा के जीवन में जीते हैं — सोचते हैं, निर्णय लेते हैं, बोलते हैं, प्रतिक्रिया देते हैं। यही हमारा सचेत मन है। दूसरा स्तर है अवचेतन, जहाँ हमारे सारे संस्कार, भय, इच्छाएँ और यादें जमा रहती हैं। यही वह परत है जो हमारे व्यवहार को नियंत्रित करती है, चाहे हमें इसका पता न हो। तीसरा और अंतिम स्तर है सुपर कॉन्शियसनेस — यह वह स्थिति है जहाँ मन और विचार की सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं। यहाँ न “मैं” बचता है, न “तू”, न कोई द्वैत। केवल एक शुद्ध उपस्थिति रह जाती है — शांति, प्रकाश और अपार प्रेम से भरी हुई। सुपर कॉन्शियसनेस का अनुभव कैसा होता है:- सुपर कॉन्शियसनेस का अनुभव शब्दों में बाँधना लगभग असंभव है। इसे केवल महसूस किया जा सकता है। यह वैसा ही है जैसे कोई व्यक्ति समंदर को देखकर केवल उसकी लहरें समझे, पर जो व्यक्ति उसमें डूब जाए, वह जानता है कि समंदर क्या है। जब मनुष्य इस अवस्था में प्रवेश करता है, तब विचार रुक जाते हैं। समय का कोई अर्थ नहीं रह जाता। “भूत” और “भविष्य” दोनों मिट जाते हैं और केवल वर्तमान क्षण बचता है। रमण महर्षि, श्री रामकृष्ण परमहंस, और ओशो जैसे आत्मज्ञानी इसी अवस्था में जीते थे। वे कहते हैं —“तुम अपने भीतर झाँको, तुम्हें पूरा ब्रह्मांड वहीं मिलेगा।” मन की रुकावटें और भ्रम:- हममें से अधिकांश लोग सुपर कॉन्शियसनेस तक नहीं पहुँच पाते क्योंकि हमारा मन एक सतत शोर में फँसा हुआ है। हम सोचते हैं कि हम विचार हैं, पर सच यह है कि विचार हमारे नहीं — वे तो हवा की तरह बहते हैं, आते हैं और चले जाते हैं। हम लगातार अपनी पहचान किसी न किसी चीज़ से जोड़ते रहते हैं — नाम, पेशा, धर्म, शरीर, रिश्ते — और इसी पहचान में सीमित हो जाते हैं। पर सुपर कॉन्शियसनेस तब आती है जब यह सारी पहचानें गिर जाती हैं। मन को शांत करना कोई आसान काम नहीं है, क्योंकि मन हमेशा कुछ न कुछ पकड़ना चाहता है। पर जब आप धीरे-धीरे उसे देखने लगते हैं, उसका साक्षी बनने लगते हैं, तब एक दूरी पैदा होती है। उसी दूरी में प्रकाश जन्म लेता है। ध्यान ही द्वार है:- सुपर कॉन्शियसनेस तक पहुँचने का एकमात्र मार्ग है ध्यान। ध्यान का अर्थ है — भीतर की यात्रा। इसका मतलब यह नहीं कि आप किसी देवता की कल्पना करें या कोई मंत्र दोहराएँ। सच्चे ध्यान का अर्थ है — अपने विचारों को बिना जज किए देखना। जब आप देखने वाले बन जाते हैं, तब आप समझते हैं कि आप न शरीर हैं, न मन, बल्कि वह शुद्ध चेतना हैं जो सब कुछ देख रही है। धीरे-धीरे जब यह “देखने वाला” स्थिर हो जाता है, तब चेतना का विस्फोट होता है। उसी विस्फोट को ही सुपर कॉन्शियसनेस कहा जाता है। यह अनुभव बिजली की तरह झटका नहीं देता, बल्कि गहराई से भीतर उतरता है — जैसे धीरे-धीरे भोर का उजाला फैलता है।related post :- योग निद्रा : गहरी शांति और आत्म-जागरूकता की कुंजी
विज्ञान और सुपर कॉन्शियसनेस:-
आज आधुनिक विज्ञान भी यह मानने लगा है कि चेतना ब्रह्मांड का मूल तत्व है। क्वांटम फिजिक्स कहती है कि पर्यवेक्षक (observer) के बिना कोई वास्तविकता नहीं बनती। इसका अर्थ है — जो देख रहा है वही वास्तविकता को जन्म देता है।
जब व्यक्ति सुपर कॉन्शियसनेस में प्रवेश करता है, तो वह “पर्यवेक्षक” नहीं रहता — वह स्वयं सृष्टि बन जाता है। यही कारण है कि कई संत, योगी या ऋषि अपनी संकल्प शक्ति से वास्तविकता को प्रभावित कर पाते हैं।
रामानुजन ने कहा था कि उन्हें गणित के सूत्र “देवी” बताती हैं — यह उनका विश्वास नहीं था, यह उनका अनुभव था। उनका मस्तिष्क नहीं, उनकी चेतना काम कर रही थी।
व्यवहारिक जीवन में इसका अर्थ:-
कई लोग सोचते हैं कि सुपर कॉन्शियसनेस केवल सन्यासियों या योगियों के लिए है, पर यह गलत है। यह हर इंसान के भीतर छिपा हुआ खज़ाना है। फर्क सिर्फ इतना है कि कुछ लोग इसे खोज लेते हैं, कुछ नहीं।
अगर आप हर दिन कुछ मिनट के लिए शांति में बैठें, अपने विचारों को देखें, किसी से तुलना न करें, किसी को दोष न दें — तो धीरे-धीरे आपकी चेतना गहराई में उतरने लगती है।
इसका परिणाम यह होता है कि आपका व्यवहार बदल जाता है — प्रतिक्रियाएँ कम होती हैं, करुणा बढ़ती है, और जीवन में सहजता आ जाती है। आप अब दुनिया को किसी डर या लालच से नहीं, बल्कि समझ और प्रेम से देखते हैं।
अंतिम सत्य:-
सुपर कॉन्शियसनेस कोई उपलब्धि नहीं है — यह हमारी असली स्थिति है। इसे पाना नहीं, बल्कि याद करना है।
हम पहले से ही वही हैं जिसकी तलाश में हम पूरी ज़िंदगी भटकते हैं।
जब “मैं” गिर जाता है, तब जो बचता है वही “सुपर कॉन्शियसनेस” है — वही भगवान, वही आत्मा, वही ब्रह्म।
सुपर कॉन्शियसनेस का मार्ग कोई रहस्यमयी साधना नहीं, बल्कि आत्म-साक्षात्कार की यात्रा है। यह तब शुरू होती है जब आप बाहर की दुनिया से ध्यान हटाकर अपने भीतर देखते हैं।
सत्य बाहर नहीं, भीतर है।
जिस दिन यह समझ भीतर से उतर जाती है, उस दिन आप केवल जीवन को नहीं जीते — आप स्वयं जीवन बन जाते हैं।

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