जीवन का सार .......

एक व्यक्ति जीवन का सार ढूंढ़ता हुआ, आध्यात्मिक वातावरण में, रहस्यमय ऑयल पेंटिंग शैली में

हम लगातार किसी “अर्थ” की तलाश में जीते हैं, जैसे जीवन अपने आप में पर्याप्त नहीं।

हम मान लेते हैं कि कुछ बड़ा उद्देश्य होगा — कोई लक्ष्य, कोई दिव्यता, कोई मक़सद जो सबको जोड़ दे।
पर जितना अधिक हम खोजते हैं, उतना ही जीवन फिसलता जाता है।
सच तो यह है कि जीवन का कोई “सार” नहीं है जिसे बाहर कहीं पाया जा सके
वह तभी प्रकट होता है जब हम उस खोज को ही छोड़ देते हैं।

मन को यह बात स्वीकार करना कठिन है क्योंकि मन को हमेशा दिशा चाहिए —
कोई कारण, कोई गंतव्य, कोई कहानी।
पर जीवन कहानी नहीं है, वह तो घटना है —
हर सांस में घटता हुआ, हर पल में नष्ट होता हुआ।

“सार” की भूख असल में “स्थायित्व” की भूख है

जब हम कहते हैं कि हम जीवन का सार जानना चाहते हैं,
तो हम दरअसल यह कह रहे होते हैं —
“मुझे कुछ ऐसा चाहिए जो न बदले, जो स्थायी हो,
जिस पर मैं टिक सकूँ।”

हमारी सारी आध्यात्मिकता, सारे धर्म, सारे दर्शन इसी भय से जन्मे हैं —
अस्थिरता के भय से।
हम मृत्यु से डरते हैं, इसलिए अमरता की बातें करते हैं।
हम शून्य से डरते हैं, इसलिए ईश्वर की कल्पना करते हैं।
हम अर्थहीनता से डरते हैं, इसलिए अर्थ रचते हैं।

पर जीवन को जबरन स्थिर करने की यह कोशिश ही दुख का मूल है।
जीवन तरल है —
उसे किसी विचार, किसी परिभाषा, किसी दर्शन में बंद करना
ऐसा है जैसे हवा को मुट्ठी में कैद करने की कोशिश।

जीवन का सार अनुभव में है, व्याख्या में नहीं

जो जीवन को समझने बैठता है, वह उसे खो देता है।
जो जीवन को जीने बैठता है, वह उसे पा लेता है।
समझने वाला हमेशा सोचता है,
“यह क्या है? क्यों है? किसलिए है?”
और जो जीने वाला है,
वह केवल महसूस करता है —
बारिश की ठंडक, हवा का स्पर्श, किसी की आँखों में मौन।

सार वही है — जो इस क्षण में घट रहा है।
पर हम हर क्षण से भागे रहते हैं,
कभी भविष्य के अर्थ में, कभी अतीत के बोझ में।
यही कारण है कि जीवन की सुंदरता हमेशा हमारी पकड़ से बाहर रहती है।

अस्तित्व का विरोधाभास

जीवन जितना सरल दिखता है, उतना ही विरोधाभासी है।
वह देता भी है और छीनता भी है।
वह जन्म भी है और मृत्यु भी।
वह पीड़ा भी है और आनन्द भी।
जो केवल सुख चाहता है, उसे जीवन अधूरा लगेगा।
जो दुख से डरता है, वह आनंद भी खो देगा।

सार समझने के लिए दोनों को साथ स्वीकारना पड़ता है।
जिस क्षण हम कहें कि
“हाँ, पीड़ा भी मेरी है और प्रसन्नता भी मेरी,”
उसी क्षण द्वंद्व मिटने लगता है।
जीवन तब हल नहीं होता —
वह बस सहज हो जाता है।

अर्थ नहीं, उपस्थिति

जीवन का सार “meaning” में नहीं, बल्कि “presence” में है।
जब तुम पूर्ण रूप से उपस्थित होते हो —
बिना भविष्य की योजना, बिना अतीत की स्मृति —
तब तुम वही हो जो जीवन है।
वह मौन क्षण, जब कोई विचार नहीं बचता,
वही जीवन का सच्चा स्वरूप है।
बाकी सब अर्थ, किताबें, उपदेश, शास्त्र —
सिर्फ उंगलियाँ हैं जो चाँद की ओर इशारा करती हैं।
पर हम उंगली में उलझे रहते हैं,
चाँद को देखना भूल जाते हैं।

सार मिलने से नहीं, खोने से आता है

आख़िर में जीवन का सार जानने की यात्रा,
कुछ पाने की नहीं — कुछ खोने की यात्रा है।
हम अपनी मान्यताएँ खोते हैं, अपने भय खोते हैं,
अपनी झूठी पहचान खोते हैं।
और जब सब कुछ खो जाता है,
तब जो बचता है वही जीवन है —
निर्विकल्प, निःशब्द, अद्वितीय।

तब कोई सार नहीं बचता,
फिर भी हर चीज़ सार्थक हो जाती है।
फूल का खिलना, बच्चे की हँसी, किसी अजनबी की आँखों में शांति —
सब अर्थपूर्ण लगने लगता है,
क्योंकि तुम अब जीवन के विरुद्ध नहीं हो।

निष्कर्ष — जब खोज समाप्त होती है, जीवन शुरू होता है

जीवन का सार किसी ग्रंथ में नहीं मिलेगा,
किसी गुरु की परिभाषा में भी नहीं।
वह तभी मिलेगा जब खोज की सारी ऊर्जा जीने में बदल जाएगी।
जब तुम उत्तर ढूँढना बंद कर दोगे,
और इस क्षण को पूरा जी लोगे —
तब समझ आएगा कि जीवन का सार कोई शब्द नहीं,
वह तो जीवन स्वयं है।

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