अहंकार से मुक्ति: सच्चे जागरण की ओर साधना का मार्ग
कबीर ने कहा था — “प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय संग।” यह एक साधारण पंक्ति नहीं बल्कि आत्मा पर चोट है। इसका अर्थ है कि जब तक “मैं” मौजूद है, तब तक प्रेम, सत्य या ईश्वर उस व्यक्ति तक नहीं पहुँच सकता। अहंकार वही दीवार है जो हमें बाकी सब से अलग करती है, और यही दीवार हमारे सभी दुखों की जड़ है। इंसान अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा इस “मैं” को सजाने-सँवारने में बिता देता है, पर कभी यह नहीं देखता कि यह “मैं” असल में है क्या। अहंकार बहुत चालाक होता है — वह कभी धन के रूप में आता है, कभी धर्म के रूप में, और कभी आध्यात्मिकता के वेश में। कबीर ने चेताया था कि जो अपने को ज्ञानी समझे, वही सबसे अज्ञानी है, क्योंकि अहंकार मरना नहीं जानता, वह बस रूप बदलता रहता है। ओशो कहते हैं कि अहंकार एक बहुत परिष्कृत बीमारी है, जैसे-जैसे तुम आध्यात्मिक बनते हो, वह और अधिक सूक्ष्म हो जाता है। वह यहां तक कहने लगता है, “मैं अब अहंकार रहित हूँ।” और यही सबसे गहरा भ्रम है, क्योंकि जिस क्षण तुम कहते हो “मैं अहंकार रहित हूँ,” उसी क्षण अहंकार ने नया रूप ले लिया होता है। रमण महर्षि के पास एक व्यक्ति गया और बोला, “मुझे बत...