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Showing posts from October, 2025

अहंकार से मुक्ति: सच्चे जागरण की ओर साधना का मार्ग

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कबीर ने कहा था — “प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय संग।” यह एक साधारण पंक्ति नहीं बल्कि आत्मा पर चोट है। इसका अर्थ है कि जब तक “मैं” मौजूद है, तब तक प्रेम, सत्य या ईश्वर उस व्यक्ति तक नहीं पहुँच सकता। अहंकार वही दीवार है जो हमें बाकी सब से अलग करती है, और यही दीवार हमारे सभी दुखों की जड़ है। इंसान अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा इस “मैं” को सजाने-सँवारने में बिता देता है, पर कभी यह नहीं देखता कि यह “मैं” असल में है क्या। अहंकार बहुत चालाक होता है — वह कभी धन के रूप में आता है, कभी धर्म के रूप में, और कभी आध्यात्मिकता के वेश में। कबीर ने चेताया था कि जो अपने को ज्ञानी समझे, वही सबसे अज्ञानी है, क्योंकि अहंकार मरना नहीं जानता, वह बस रूप बदलता रहता है। ओशो कहते हैं कि अहंकार एक बहुत परिष्कृत बीमारी है, जैसे-जैसे तुम आध्यात्मिक बनते हो, वह और अधिक सूक्ष्म हो जाता है। वह यहां तक कहने लगता है, “मैं अब अहंकार रहित हूँ।” और यही सबसे गहरा भ्रम है, क्योंकि जिस क्षण तुम कहते हो “मैं अहंकार रहित हूँ,” उसी क्षण अहंकार ने नया रूप ले लिया होता है। रमण महर्षि के पास एक व्यक्ति गया और बोला, “मुझे बत...

हमें लोगों की Validation की भूख क्यों होती है?

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कभी गौर किया है, जब कोई हमारी तारीफ़ करता है तो भीतर एक मीठी सी लहर उठती है, लेकिन जैसे ही कोई आलोचना कर देता है, वही मन बेचैन हो उठता है। यह जो दूसरों की स्वीकृति की भूख है, जिसे हम validation कहते हैं, वह आधुनिक जीवन की सबसे गहरी जड़ बन चुकी है। लेकिन असल सवाल यह है कि हमें दूसरों की validation की ज़रूरत क्यों पड़ती है? क्या हम खुद को देखने, महसूस करने या स्वीकार करने में इतने अक्षम हो गए हैं कि अपनी कीमत तय करने के लिए हमें किसी और की नज़रों की ज़रूरत पड़ती है? Validation का मतलब होता है किसी और के approval से अपनी value तय करना। यह धीरे-धीरे हमारी पहचान का हिस्सा बन जाता है। हम भूल जाते हैं कि असली स्वीकृति भीतर से आनी चाहिए, बाहर से नहीं। मनुष्य की चेतना मूल रूप से स्वतंत्र है, लेकिन समाज ने हमें बचपन से ही यह सिखाया है कि “अच्छा वही है जो दूसरों को पसंद आए।” इसी conditioning ने हमें असली से बनावटी बना दिया है। हम हर पल किसी मंच पर अभिनय कर रहे हैं ताकि कोई हमें notice करे, approve करे, सराहे। लेकिन भीतर हम जानते हैं कि यह approval कभी स्थायी नहीं होता, यह बस कुछ पलों की राहत है,...

super consciousness :– जब मनुष्य स्वयं ब्रह्म बन जाता है

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मनुष्य का सबसे बड़ा रहस्य उसके बाहर नहीं, बल्कि उसके भीतर छिपा है। हम जीवन भर ब्रह्मांड को समझने की कोशिश करते हैं—आकाश, तारे, ग्रह, ऊर्जा, भगवान—पर बहुत कम लोग यह समझ पाते हैं कि यह सब कुछ जो बाहर दिख रहा है, उसकी जड़ हमारे अंदर ही है। जब मनुष्य उस अवस्था में पहुँचता है जहाँ उसका चेतन, अवचेतन और अतिचेतन एक हो जाते हैं, तब उसे जो अनुभव होता है उसे “ सुपर कॉन्शियसनेस ” कहा जाता है। यह कोई रहस्यमयी या कल्पनात्मक शब्द नहीं है, बल्कि वह स्थिति है जहाँ “व्यक्ति” समाप्त हो जाता है और केवल “चेतना” रह जाती है। चेतना के तीन स्तर:- मानव चेतना को तीन स्तरों में बाँटा जा सकता है — conscious , subconscious , और superconscious । पहला स्तर वह है जहाँ हम रोज़मर्रा के जीवन में जीते हैं — सोचते हैं, निर्णय लेते हैं, बोलते हैं, प्रतिक्रिया देते हैं। यही हमारा सचेत मन है। दूसरा स्तर है अवचेतन , जहाँ हमारे सारे संस्कार, भय, इच्छाएँ और यादें जमा रहती हैं। यही वह परत है जो हमारे व्यवहार को नियंत्रित करती है, चाहे हमें इसका पता न हो। तीसरा और अंतिम स्तर है सुपर कॉन्शियसनेस — यह वह स्थिति है जहाँ मन...

भीतर का मंदिर — आत्मा की यात्रा श्री रामकृष्ण परमहंस के उपदेशों से

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कभी-कभी ज़िन्दगी के शोर में हम इतने उलझ जाते हैं कि अपने ही भीतर की आवाज़ सुनना भूल जाते हैं। बाहर सब कुछ ठीक दिखता है — लेकिन अंदर एक खालीपन रहता है। श्री रामकृष्ण परमहंस का जीवन इसी खालीपन को भरने की कला सिखाता है। वे कहते थे — “ईश्वर कोई बाहर की शक्ति नहीं, बल्कि हमारे अपने भीतर की रोशनी है।” यही वो वाक्य है जो इंसान के जीवन की दिशा बदल सकता है। 1. साधना का असली अर्थ — भीतर की वापसी आज के समय में हम सब किसी न किसी लक्ष्य के पीछे भाग रहे हैं — सफलता, सम्मान या पहचान। लेकिन परमहंस कहते थे, “जो अपने भीतर लौट गया, उसने सब पा लिया।” ध्यान का मतलब आंखें बंद करके कुछ सोचना नहीं, बल्कि अपने भीतर उस मौन को महसूस करना है, जो हमेशा से वहाँ है। साधना तब शुरू होती है जब हम दुनिया से नहीं, खुद से सवाल पूछते हैं — “मैं वास्तव में कौन हूँ?” यही सवाल धीरे-धीरे भीतर का द्वार खोलता है। 2. भक्ति — करुणा का दूसरा नाम परमहंस का मानना था कि “भक्ति का मतलब भगवान को मनाना नहीं, बल्कि अपने भीतर करुणा जगाना है।” अगर हम किसी की पीड़ा देखकर बेचैन हो जाते हैं, तो वही असली पूजा है। आज मंदिरों में भीड़ है, प...

अस्तित्ववाद और मानव व्यवहार : जब इंसान खुद से सवाल करता है

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कभी हम सबके साथ ऐसा होता है कि अचानक भीड़-भाड़ के बीच या रात के सन्नाटे में एक सवाल मन में उठता है – “आख़िर मैं यहाँ क्यों हूँ? मेरी ज़िंदगी का असली उद्देश्य क्या है?” ये सवाल अजीब-सा लगता है, लेकिन सच ये है कि हर इंसान अपने जीवन में कभी न कभी इसे महसूस करता है। यही वह जगह है जहाँ से अस्तित्ववाद की शुरुआत होती है। अस्तित्ववाद कोई जटिल दर्शन नहीं है। यह हमारे अपने अनुभवों से जुड़ा हुआ है। जब हम रोज़मर्रा की भाग-दौड़ में थक जाते हैं और मन में बेचैनी उठती है कि ये सब किस लिए है, तब हम असल में अस्तित्व के प्रश्नों से गुज़र रहे होते हैं। कोई भी इंसान चाहे किसी भी जगह, किसी भी स्थिति में हो, यह सवाल उसके भीतर कहीं न कहीं गूँजता है। मानव व्यवहार की सबसे बड़ी सच्चाई यह है कि हम सब जीवन में अर्थ खोजने की कोशिश करते हैं। हम चाहते हैं कि हमारे काम का कोई मतलब हो, हमारे रिश्तों में गहराई हो और हमारी पहचान को लोग समझें। लेकिन वास्तविकता अक्सर इससे अलग होती है। हम काम तो करते हैं, लेकिन कभी-कभी लगता है कि बस पैसे के पीछे भाग रहे हैं। रिश्ते तो बनते हैं, पर उनमें खालीपन भी होता है। हम दुनिया के सा...