अस्तित्ववाद और मानव व्यवहार : जब इंसान खुद से सवाल करता है
अस्तित्ववाद कोई जटिल दर्शन नहीं है। यह हमारे अपने अनुभवों से जुड़ा हुआ है। जब हम रोज़मर्रा की भाग-दौड़ में थक जाते हैं और मन में बेचैनी उठती है कि ये सब किस लिए है, तब हम असल में अस्तित्व के प्रश्नों से गुज़र रहे होते हैं। कोई भी इंसान चाहे किसी भी जगह, किसी भी स्थिति में हो, यह सवाल उसके भीतर कहीं न कहीं गूँजता है।
मानव व्यवहार की सबसे बड़ी सच्चाई यह है कि हम सब जीवन में अर्थ खोजने की कोशिश करते हैं। हम चाहते हैं कि हमारे काम का कोई मतलब हो, हमारे रिश्तों में गहराई हो और हमारी पहचान को लोग समझें। लेकिन वास्तविकता अक्सर इससे अलग होती है। हम काम तो करते हैं, लेकिन कभी-कभी लगता है कि बस पैसे के पीछे भाग रहे हैं। रिश्ते तो बनते हैं, पर उनमें खालीपन भी होता है। हम दुनिया के सामने मुस्कुराते हैं, लेकिन भीतर से सवालों से भरे रहते हैं।
यही विरोधाभास हमें अस्तित्ववाद के करीब लाता है। यह हमें बताता है कि जीवन के प्रश्नों का कोई तैयार जवाब नहीं है। हमें अपने रास्ते खुद बनाने होते हैं, और अपने फैसलों की ज़िम्मेदारी भी खुद लेनी पड़ती है। यह सोच शुरुआत में डरावनी लग सकती है, लेकिन यही हमें असली इंसान भी बनाती है।
अगर आप गौर करो तो देखोगे कि ज़िंदगी में सबसे ज्यादा संघर्ष हमारे भीतर ही होता है। बाहर की दुनिया हमें जैसा चाहती है, वैसा ढालने की कोशिश करती है। समाज कहता है कि नौकरी करो, पैसा कमाओ, नाम बनाओ। रिश्तेदार कहते हैं कि जिम्मेदारियाँ निभाओ। सोशल मीडिया कहता है कि लाइफ को perfect दिखाओ। लेकिन इन सबके बीच जो असली “मैं” है, वह कहीं दब-सा जाता है। यही दबा हुआ “मैं” एक दिन आवाज़ उठाता है और पूछता है – “क्या यही सच में मैं हूँ?”
यही पल होता है जब इंसान खुद को गहराई से जानने की कोशिश करता है। अस्तित्ववाद हमें यह स्वीकार करना सिखाता है कि अकेलापन, डर और सवाल होना सामान्य है। ये हमें कमजोर नहीं, बल्कि और भी वास्तविक बनाते हैं। जब हम इन्हें मान लेते हैं, तभी हमें यह समझ आता है कि हमें अपनी पहचान खुद बनानी है।
मानव व्यवहार की सबसे खूबसूरत बात यह है कि हम लगातार अर्थ गढ़ते रहते हैं। कोई इंसान अपने परिवार के लिए जीने को अपनी पहचान मानता है, तो कोई अपनी कला में, अपने काम में या अपने सपनों में जीवन का अर्थ ढूँढता है। कोई छोटा किसान भी जब अपनी ज़मीन जोतता है तो वह अपने भीतर इस विश्वास को महसूस करता है कि उसका काम बेकार नहीं है। कोई कलाकार जब कैनवास पर रंग भरता है तो उसे लगता है कि वह अपनी आत्मा को व्यक्त कर रहा है। कोई माँ जब बच्चे को गले लगाती है तो उसे अपनी दुनिया वहीं पूरी लगती है। यही तो जीवन का अर्थ है – वह जो हम खुद चुनते हैं।
लेकिन यहाँ एक मुश्किल भी है। ज़िंदगी हमें बार-बार परखती है। कई बार लगता है कि सबकुछ बेकार है। नौकरी मन नहीं लगती, रिश्ते टूट जाते हैं, सपने अधूरे रह जाते हैं। उस समय दिल में खालीपन भर जाता है। लेकिन यहीं पर अस्तित्ववाद हमें ताकत देता है। यह कहता है कि जीवन का अर्थ हमें तैयार नहीं मिलता, बल्कि हमें उसे गढ़ना होता है। चाहे हालात कितने भी कठिन क्यों न हों, अगर हम अपने भीतर उस रोशनी को खोजते रहें तो हमें रास्ता मिल जाता है।
यह समझ लेना भी ज़रूरी है कि हम सब अलग-अलग हैं और इसलिए जीवन का अर्थ भी सबके लिए अलग होता है। कोई साधु हिमालय की गुफ़ाओं में ध्यान में अर्थ ढूँढता है, तो कोई डॉक्टर अपनी सेवा में। कोई लेखक अपने शब्दों में जीने का कारण पाता है, तो कोई व्यापारी अपने संघर्ष और उपलब्धि में। असल बात यह है कि जीवन के सवालों से भागना नहीं है, बल्कि उनका सामना करना है।
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अगर हम ध्यान दें तो पाएँगे कि अस्तित्ववाद हमें यह भी सिखाता है कि समय सीमित है। यह एहसास हमें अपने चुनावों को और ज्यादा गंभीरता से देखने पर मजबूर करता है। जब हमें पता होता है कि यह जीवन एक दिन खत्म हो जाएगा, तभी हम उसे जीना सीखते हैं। तब हमें समझ आता है कि छोटी-छोटी खुशियाँ भी कितनी कीमती हैं – किसी अपने की मुस्कान, दोस्त की हँसी, बारिश की खुशबू, अकेलेपन में शांति का पल – यही तो ज़िंदगी है।
मानव व्यवहार की गहराई इसी में है कि हम इन साधारण पलों को भी असाधारण बना सकते हैं। अस्तित्ववाद कहता है कि अगर आप चाहें तो हर अनुभव को अर्थ दे सकते हैं। चाहे दर्द हो या खुशी, हर एक लम्हा आपके जीवन की कहानी का हिस्सा है। सवाल यह है कि आप उस कहानी को किस नज़र से देखते हैं।
निष्कर्ष यही है कि अस्तित्ववाद और मानव व्यवहार हमें बार-बार याद दिलाते हैं कि हम अपने जीवन के लेखक हैं। हम चाहें तो दूसरों की उम्मीदों के हिसाब से जी सकते हैं और चाहें तो अपना रास्ता खुद बना सकते हैं। कठिनाई, अकेलापन और सवाल – यह सब हमारे साथ रहेंगे। लेकिन अगर हम उन्हें स्वीकार कर लें और उनके बीच भी अपना अर्थ खोज लें, तो ज़िंदगी सिर्फ जीने का नाम नहीं रहेगी, बल्कि सच में जीने का अनुभव बन जाएगी।
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