चेतना को जानें : जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय अवस्था
हमारे जीवन का सबसे रहस्यमय हिस्सा हमारी चेतना है। यही चेतना हमें अन्य जीवों से अलग बनाती है और सोचने, समझने, महसूस करने और अपने भीतर झाँकने का अवसर देती है। हिन्दू दर्शन में चेतना को सिर्फ़ मन या बुद्धि तक सीमित नहीं माना गया, बल्कि इसे आत्मा की अभिव्यक्ति कहा गया है। उपनिषद और वेदांत में इसे चार अवस्थाओं में बाँटा गया है – और इन्हें समझना हमारे लिए एक तरह की आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत है।
जाग्रत अवस्था
हम अपनी ज़िंदगी का सबसे ज़्यादा समय इसी अवस्था में बिताते हैं। सुबह उठते हैं, काम करते हैं, लोगों से मिलते हैं – यही हमारी जाग्रत चेतना है। यहाँ हमारी इंद्रियाँ पूरी तरह सक्रिय रहती हैं – हम देखते हैं, सुनते हैं, छूते हैं, स्वाद लेते हैं और सूँघते हैं।
लेकिन इस अवस्था में हमारी खुशियाँ और दुःख ज़्यादातर बाहरी दुनिया पर निर्भर करते हैं। तारीफ़ मिले तो खुश होते हैं, निंदा मिले तो दुखी। जरूरी तो है, पर सतही भी है – यह हमें आत्मा की गहराई तक नहीं ले जाती।
स्वप्न अवस्था
जब हम सोते हैं, तब भी हमारा मन पूरी तरह से सक्रिय रहता है। यही अवस्था हमें सपनों के रूप में दिखती है। कभी हम उड़ते हैं, कभी गिरते हैं, कभी पुराने रिश्तेदारों से मिलते हैं।
यह अवस्था हमें यह समझाती है कि चेतना सिर्फ़ बाहर की दुनिया से नहीं, बल्कि भीतर की दुनिया से भी जुड़ी है। हमारे सपनों में हमारी इच्छाएँ, डर और अनसुलझे सवाल सामने आते हैं।
सुषुप्ति (गहरी नींद)
यह वह अवस्था है जब न मन जागरूक होता है, न सपने आते हैं। सब कुछ शून्य जैसा लगता है। हम नहीं जानते कि हम कौन हैं, कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं।
लेकिन जब सुबह उठते हैं और कहते हैं, “आज नींद बहुत अच्छी आई,” इसका मतलब है कि उस शून्यता का भी अनुभव था। सुषुप्ति हमें यह दिखाती है कि जब मन और इंद्रियाँ शांत हों, तब भी हमारे भीतर कोई सत्ता शेष रहती है – यही आत्मा है।
तुरीय अवस्था
यह चौथा और सबसे उच्च स्तर है। न जाग्रत है, न स्वप्न, न सुषुप्ति। यह सबके परे है।
तुरीय अवस्था में आत्मा और ब्रह्म का अनुभव एक ही रूप में होता है। कोई डर, कोई अलगाव नहीं बचता। योगी इसे “समाधि” कहते हैं। यही मोक्ष है – जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठना और अनंत शांति का अनुभव करना।
आध्यात्मिक दृष्टि से
जाग्रत अवस्था स्थूल जगत से जुड़ी है, स्वप्न अवस्था सूक्ष्म जगत से, सुषुप्ति कारण जगत से, और तुरीय परम सत्य से। मांडूक्य उपनिषद इसे ‘ॐ’ के चार आयामों से जोड़ता है – “अ” जाग्रत का, “उ” स्वप्न का, “म” सुषुप्ति का, और मौन ध्वनि तुरीय का प्रतीक।
इन चार अवस्थाओं को समझना सिर्फ़ ज्ञान का खेल नहीं है, बल्कि यह हमारी आत्मिक साधना का आधार है। धीरे-धीरे जाग्रत से स्वप्न की ओर, स्वप्न से सुषुप्ति की ओर और अंत में तुरीय की ओर बढ़ना ही जीवन की असली यात्रा है। ध्यान, योग और भक्ति का उद्देश्य यही है – मन को शांत करना, इंद्रियों को नियंत्रित करना और भीतर प्रेम और करुणा का विकास करना, ताकि हम तुरीय अवस्था तक पहुँच सकें।
इसलिए, हिन्दू दर्शन हमें सिखाता है कि चेतना स्थिर नहीं है। इसे समझकर और साधना के मार्ग पर चलकर हम इसे ऊँचे स्तर तक ले जा सकते हैं। हर रात जब हम सोते हैं, तब हम इन तीन अवस्थाओं – जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति – का अनुभव करते हैं। पर जीवन का असली उद्देश्य चौथी अवस्था, तुरीय को खोजना है। वही वह जगह है जहाँ शांति शाश्वत, आनंद अनंत और आत्मा स्वयं को ब्रह्म के रूप में पहचानती है।

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