कर्म और भाग्य – क्या सब पहले से लिखा है?

कभी आपने यह सोचा है कि हमारे जीवन में जो कुछ भी घटित होता है, क्या वह पहले से ही तय है? क्या हमारी सफलता, असफलता, सुख-दुख और हर मोड़ किसी अदृश्य शक्ति द्वारा पहले से लिखा जा चुका है? या फिर हम अपने कर्मों से इस लिखे हुए को बदल सकते हैं? यह प्रश्न सदियों से ऋषियों, संतों और सामान्य मनुष्यों को गहरे चिंतन में डालता आया है।

भारतीय दर्शन में कर्म और भाग्य को जीवन के दो पहियों की तरह समझाया गया है। एक पहिया है कर्म – जो हम हर क्षण कर रहे हैं, चाहे वह विचारों में हो, शब्दों में हो या क्रियाओं में। दूसरा पहिया है भाग्य – जो हमारे सामने परिस्थितियों के रूप में आता है। जीवन की गाड़ी इन दोनों पहियों के संतुलन पर ही चलती है।

भाग्य अक्सर हमें रहस्यमयी लगता है। जब कोई अनपेक्षित घटना घटती है, हम कहते हैं, “यह मेरे भाग्य में लिखा था।” जैसे अचानक धनवान बन जाना या किसी प्रिय का चले जाना। ऐसे क्षणों में भाग्य शक्तिशाली और अनिवार्य प्रतीत होता है। यह सोचकर मन को तसल्ली मिलती है कि हमारे हाथ में कुछ नहीं था। लेकिन शास्त्र कहते हैं कि भाग्य वास्तव में हमारे पूर्वकृत कर्मों का फल है। जैसे बीज बोने पर फल निश्चित रूप से आता है, उसी तरह हमारे कर्म ही भविष्य की परिस्थितियों को आकार देते हैं।

अब प्रश्न उठता है कि यदि सब पहले से लिखा है, तो वर्तमान कर्मों की क्या भूमिका है? इसका उत्तर जीवन का असली रहस्य है। कल्पना कीजिए, आपके सामने एक नदी बह रही है। आप यह नहीं बदल सकते कि नदी कहाँ से आएगी या कहाँ जाएगी—यह उसका “भाग्य” है। लेकिन आप तय कर सकते हैं कि उसमें आप नाव कैसे चलाएँगे, किनारे पर खड़े रहेंगे या तैराकी करके पार करेंगे। यही आपका कर्म है।

कर्म हमें यह शक्ति देता है कि हम भाग्य को केवल सहने वाले न बनें, बल्कि उसके प्रवाह में अपनी दिशा बना सकें। यदि हम केवल भाग्य पर भरोसा करके हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाएँ, तो जीवन ठहर जाएगा। लेकिन यदि हम अपने कर्म को जागरूकता और ईमानदारी से करें, तो भाग्य भी धीरे-धीरे हमारे पक्ष में बदलने लगता है।

संतों की दृष्टि से भी यही सिखाया गया है। कबीर कहते हैं:
"कर्म करे सो कर्म फल भोगे, भाग्य कहीं से आये न।"
उनका अर्थ है कि भाग्य कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं, बल्कि हमारे कर्मों का ही दूसरा नाम है। श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा – “तेरा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं।” इसका मतलब यही है कि हमें अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए, फल अपने आप आएगा।

कल्पना कीजिए दो व्यक्ति हैं – एक मानता है कि सब भाग्य में लिखा है, और दूसरा मानता है कि कर्म से जीवन बदल सकता है। पहला व्यक्ति कठिनाइयों में बैठा रहेगा और कहेगा, “मेरे भाग्य में यही था।” धीरे-धीरे उसका जीवन ठहर जाएगा। दूसरा व्यक्ति परिस्थिति चाहे जैसी भी हो, कर्म करता रहेगा। असफलताओं से सीखकर वह आगे बढ़ेगा और अंततः सफलता उसके पास आएगी। लोग कहेंगे, “इसका भाग्य अच्छा है।” पर वास्तव में यह उसके कर्म का परिणाम है।

असल सच्चाई यह है कि कर्म और भाग्य विरोधी नहीं, बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भाग्य वह है जो हमारे पास अभी है – हमारी परिस्थितियाँ, हमारा परिवार, हमारी क्षमताएँ। और कर्म वह है जिससे हम इन परिस्थितियों का उपयोग करके भविष्य गढ़ते हैं। यानी आज का भाग्य, बीते कल का कर्म है; और आज का कर्म, आने वाले कल का भाग्य बनेगा।

आध्यात्मिक दृष्टि से भी कर्म और भाग्य दोनों ही आत्मा की यात्रा में साधन हैं। दुख हमें सिखाने आता है और सुख हमें सजग रहने का अवसर देता है। जब हम यह समझ जाते हैं कि हर घटना का कोई न कोई उद्देश्य है, तो भाग्य पर दोष देना बंद कर देते हैं और अपने कर्म पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

तो क्या सब पहले से लिखा है? हाँ, जो अभी घट रहा है, वह पहले से लिखा था—आपके ही कर्मों की स्याही से। लेकिन जो कल होगा, वह आज आपकी कलम से लिखा जाएगा। जीवन एक खुली किताब है, जिसमें भाग्य पहले से छपे पन्ने हैं और कर्म वे पन्ने हैं जिन्हें आप हर दिन लिख रहे हैं।

इसलिए जीवन का रहस्य यही है – भाग्य को स्वीकार करें और कर्म से उसे बदलने की क्षमता जगाएँ। न भाग्य आपको पूरी तरह बाँध सकता है, न कर्म आपको पूरी तरह मुक्त कर सकता है। असली मुक्ति तब है जब आप समझ जाएँ कि जीवन एक नृत्य है, जिसमें भाग्य और कर्म मिलकर आत्मा को उसकी मंज़िल तक पहुँचाते हैं।

यही आध्यात्मिक दृष्टि हमें सिखाती है कि हर क्षण जागरूक होकर कर्म करना ही जीवन का सबसे बड़ा धर्म है।


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