क्या डर आपकी ज़िंदगी बर्बाद कर रहा है?

शायद आप यह लेख इसलिए पढ़ रहे हैं क्योंकि आपके मन में भी किसी बात का डर है। हो सकता है वह कल के एग्ज़ाम का डर हो, नौकरी खोने का डर हो या किसी अपने को खोने का। कभी-कभी हमें नया काम शुरू करने से भी डर लगता है, बस इसलिए कि मन में सवाल उठता है – “लोग क्या कहेंगे?” या “अगर मैं फेल हो गया तो?”

डर एक ऐसी भावना है जो हमें भीतर से छोटा और लाचार बना देती है। हम अक्सर डर से भागते हैं, उसे छुपाते हैं या उससे बचने के बहाने ढूंढते हैं। लेकिन क्या आपने कभी ठहरकर सोचा है कि डर असल में है क्या? क्या यह सचमुच उतना बड़ा है जितना हम उसे मान लेते हैं?

सदियों पहले हमारे ऋषि-मुनियों ने हमें यह सिखाया था कि डर कोई वास्तविकता नहीं, बल्कि हमारे मन की रचना है। यह एक ऐसा भूत है जो सिर्फ़ भविष्य में रहता है। आज जब आप यह लाइन पढ़ रहे हैं, तो क्या इस पल में आपको डर महसूस हो रहा है? शायद नहीं। डर तो तब आता है जब हम भविष्य के बारे में सोचने लगते हैं –“अगर ऐसा हो गया तो?” या “कल क्या होगा?”। सच यही है कि वर्तमान क्षण में डर का कोई अस्तित्व नहीं होता।

अगर आप ध्यान से देखें तो हर डर भविष्य की किसी कल्पना से जुड़ा होता है। असफलता का डर हो, अकेलेपन का डर हो या किसी प्रियजन को खोने का डर – इन सबकी जड़ यही है कि हम भविष्य को नियंत्रित करना चाहते हैं, जबकि जीवन का सार नियंत्रण नहीं, बल्कि विश्वास और समर्पण है।

तो सवाल यह उठता है कि डर से भागना चाहिए या उससे लड़ना? जवाब है – न तो भागना और न ही लड़ना। डर को समझना और उसे स्वीकार करना ही असली रास्ता है। जब आप डर को दुश्मन मानना छोड़ देते हैं, तो उसकी ताक़त धीरे-धीरे कम हो जाती है। यह वैसा ही है जैसे अंधेरे में किसी छाया को देखकर घबराना, और फिर जब रोशनी जलाते हैं तो समझ आता है कि वह सिर्फ़ परछाईं थी, कोई असली खतरा नहीं।

डर से निकलने का सबसे आसान उपाय है वर्तमान में जीना। डर हमेशा आने वाले कल में छिपा होता है, लेकिन जब आप अपनी पूरी चेतना आज पर लगा देते हैं – चाहे वह खाने का पल हो, चलने का या किसी से बातचीत का – तो डर के लिए जगह ही नहीं बचती। साँसों पर ध्यान देना भी इसी का सबसे सरल और गहरा तरीका है। जब आप गहरी और धीमी साँसें लेते हैं, तो आपका मन तुरंत शांत हो जाता है और आप फिर से इस पल में लौट आते हैं।

याद रखिए, डर और प्रेम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहाँ प्रेम होता है, वहाँ डर टिक ही नहीं सकता। अगर आप किसी को खोने से डरते हैं, तो उस पर ध्यान मत दीजिए कि वह कल आपके साथ होगा या नहीं, बल्कि यह आभार मानिए कि वह अभी आपके जीवन में है। इसी तरह किसी काम में असफल होने से डर लग रहा हो, तो उस काम के प्रति प्रेम और जुनून जगाइए।

और सबसे ज़रूरी – ज्ञान का सहारा लीजिए। हमारे ग्रंथ बार-बार यही बताते हैं कि हम केवल शरीर और मन नहीं हैं। हम इन सबसे बड़े हैं। यह समझते ही डर की दीवार ढहने लगती है, क्योंकि फिर हर परिस्थिति हमें डराने के बजाय सिखाने लगती है।

आख़िरकार, डर कोई बाहरी दुश्मन नहीं है, बल्कि एक अंदरूनी परछाईं है। जब अगली बार आपको डर लगे, तो उससे भागिए मत। ठहरिए, गहरी साँस लीजिए और खुद से कहिए – “मैं डर से बड़ा हूँ।”

याद रखिए, जीवन का सबसे गहरा रहस्य यही है कि जिस चीज़ से आप डरते हैं, वह बाहर नहीं, बल्कि आपके भीतर है। और जब आप भीतर उसे पहचान लेते हैं, तो वह अपने आप गायब हो जाती है। डर से डरना छोड़िए, उसे प्रेम से बदल दीजिए और आज में जीना सीखिए। यही डर पर असली विजय है।


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